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सिनेमा

सामाजिक राजनीतिक यथार्थ और सिनेमा

रामशरण जोशी


अक्सर हम संचार माध्यमों को निरपेक्ष परिघटना के रूप में देखते हैं। यह मानकर चलते हैं कि लोकमाध्यमों से लेकर इलेक्ट्रोनिक माध्यम तक के संचार माध्यम कालनिरपेक्ष, समाजनिरपेक्ष होते हैं। वे अपने समय की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक-टेक्नोलॉजी प्रक्रियाओं के प्रभावों से अछूते रहते हैं। इन बहुआयामी प्रक्रियाओं के प्रभावजगत से संचार माध्यमों का कोई सरोकार नहीं होता है। सिनेमा को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है।

यह एक भ्रामक सोच है। प्रायः भाववादी, आदर्शवादी और संरचनात्मकवादी विचारक ऐसा मानकर चलते हैं कि संचार माध्यम जिसमें निःसंदेह सिनेमा भी शामिल है, भौतिक यथार्थों से स्वतंत्र हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संचार माध्यम और भौतिक संरचनात्मक परिवर्तन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। पर ऐसा नहीं है। इतिहास के अनुभव इस बात की तस्दीक करेंगे कि सिनेमा समेत संचार के शेष सभी माध्यम स्थिति सापेक्ष होते हैं, तत्कालीन और समकालीन घटनाओं का उन पर कम अधिक प्रभाव पड़ता है बल्कि समकालीन सापेक्षता ही संचार माध्यमों का चरित्र, प्रभावशीलता और प्रासंगिकता निर्धारित करती आई है। इस दृष्टि से भारतीय सिनेमा भी इस सच का अपवाद नहीं है। साफ शब्दों में समझें तो सिनेमा तथा अन्य सभी माध्यमों का स्वतंत्र कार्य-अस्तित्व रहने के बावजूद ये सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के 'बाई प्रोडक्ट' ही कहे जाएँगे। किसी भी राष्ट्र-राज्य की 'राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था' (पॉलीटिकल इकोनॉमी) का प्रत्यक्ष व परोक्ष तथा सघन व गहन प्रभाव इन माध्यमों पर पड़ता आया है और ये प्रभाव माध्यमों द्वारा संप्रेषित अंतर्वस्तुओं के माध्यम से प्रतिबिंबित या अभिव्यक्त होता है।

भारतीय सिनेमा की यात्रा देश के औपनिवेशिक काल से शुरू होती है। राजनीतिक दृष्टि से यह समय साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक शासनकाल का था। भारत अंग्रेजों का परतंत्र था लेकिन इसके साथ ही एक दूसरा सामाजिक व राजनीतिक यथार्थ भी था जिसे मैं ध्यान में रखना जरूरी समझता हूँ। जहाँ एक तरफ विदेशी शासनम्व्यवस्था थी वहीं दूसरी तरफ भारत में सामंतवादी व्यवस्था भी थी। ये दोनों समानांतर व्यवस्थाएँ भारतीय जनमानस को गहरे तक जकड़े हुए थी। सामंती व्यवस्था राज्यसत्ता या शासनव्यवस्था के रूप में ही जीवित नहीं थी बल्कि सामंतवादी मूल्यों के रूप में भी इसकी एक सांस्कृतिक सत्ता भारतीय समाज में गतिशील थी। इन त्रिकोणीय व्यवस्थाओं से भारतीय समाज की मानस निर्मिति हुई थी। इस पृष्ठभूमि में सिनेमा जैसे औद्योगिक और पूँजीवादी काल के संचार माध्यम का आगमन भारत के लिए एक महान ऐतिहासिक घटना से कम नहीं था; लोक माध्यम और प्रिंट माध्यम के बाद सिनेमा माध्यम के जन्म ने भारतीय समाज के समक्ष अभिव्यक्ति के नए विकल्प को प्रस्तुत कर दिया था। बीसवीं सदी के प्रथम चरण में दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित मूक फिल्म 'हरिश्चंद्र' ने जहाँ नई संचार क्रांति की थी वहीं सामंती और औपनिवेशिक भारत के आंतरिक जगत को बाह्य रूप से प्रस्फुटित होने का अवसर भी दिया था। क्या वजह है कि फाल्के साहब ने अपनी पहली फिल्म की कथावस्तु के रूप में एक मिथकीय आख्यान को चुना हरिश्चंद्र-तारामती की कहानी पूर्णतः धार्मिक थी और भारतीय मिथकीय मन से गहरे तक जुड़ी हुई थी। हमें यहाँ यह भी समझ लेना होगा कि भारत एक तरफ गहरे तक कृषियुगीन समाज था, कृषियुगीन समाज मूलतः भावनात्मक होता है और मिथकीय आख्यानों में समाया हुआ होता है। विदेशी शासनव्यवस्था ने तत्कालीन भारत को केवल सतह तक प्रभावित किया था लेकिन भारतीय समाज का अंर्तजगत कमोबेस भावनाप्रधान व मिथकीय ही रहा। यह अकारण नहीं है कि बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में धार्मिक फिल्मों का निर्माण अधिक होता है। हिंदी में ही नहीं, दक्षिण की भाषाओं और बाँग्ला में भी धार्मिक फिल्में अधिक बनी। यहाँ तक कि सवाक फिल्मों में भी धार्मिक फिल्मों का निर्माण अधिक हुआ था।

देश की पहली बोलती फिल्म या सवाक फिल्म 'आलम आरा' का निर्माण 1931 में हुआ था। यह भी अकारण नहीं है कि कृषिप्रधान और औपनिवेशिक समाज मूलतः पौराणिकता और रूमानियत में जीते हैं। जब पौराणिकता और रूमानियत का प्रभाव अधिक होता है तब समाज ऐसे आख्यानों में रमना पसंद करता है जो कि उसे आलोचनात्मक चेतना से दूर रखकर एक ऐसी मायानगरी में ले जाए जहाँ वह अपने जीवन की समकालीन पीड़ाओं, दुःखों, त्रासदियों आदि से मुक्ति (पलभर के लिए ही सही) पा सके और एक छद्म आध्यात्मिकता का आनंद लूट सके। इस मजे के लिए वह समकालीन कटु यथार्थों से वह पलायन करता है और धार्मिक, पौराणिक, चमत्कारिक, इश्क मिजाजी जैसी फिल्मों में शरण लेता है। आजादी प्राप्ति के काल तक हरिश्चंद्र के अलावा भगवान राम, भक्त प्रह्लाद, भक्त हनुमान, भरत मिलाप, दशहरा, रावण वध, बालि वध, लव-कुश, कृष्ण-सुदामा, राधा-कृष्ण, कंस वध, द्रौपदी चीरहरण, कृष्ण लीलाएँ, सती सावित्री, सती अनुसूइया जैसे विषयों को लेकर दर्जनों धार्मिक फिल्मों का निर्माण हुआ। इसी के साथ-साथ रूमानियत के सिनेमा का बाजार भी चमका। इस कड़ी में 'आलम आरा', 'अलिफ लैला', 'अरब का सौदागर', 'लैला मजनूँ', 'अली बाबा चालीस चोर', 'बगदाद का चोर', 'बगदाद की राजकुमारी', 'सोहनी माहीवाल', 'हीर राँझा', 'भोला-मारू' जैसी प्रेम कथाओं को लेकर सैकड़ों फिल्में बनाई गईं और इनमें कई हिट भी हुईं। जब कोई व्यक्ति या समाज या कौम या देश दासत्व का शिकार होता है या पराधीन होता है तब उसका आंतरिक प्रतिरोध नकारात्मक ढँग से भी अभिव्यक्त होता है। यह नकारात्मक अभिव्यक्ति पौराणिक नायक-नायिकाओं, प्रेमी-प्रेमिकाओं, पौराणिक युद्धों के माध्यम से व्यक्त होती है। गुलाम प्रजा इन पौराणिक तथा रोमानी पात्रों के माध्यम से अपने आक्रोश और शौर्य को वाणी देने की कोशिश करती है। इस धारा के सिनेमा निर्माताओं, निर्देशकों, पटकथा लेखकों और संगीतकारों ने सामंती व औपनिवेशिक भारत की इस मनोसंरचना का जमकर फायदा उठाया लेकिन इसके साथ ही परोक्ष रूप से भारतीयों को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोने का प्रयास भी किया।

यह वह काल था जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय मंच पर स्थापित हो चुके थे। स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने लगा था। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राष्ट्र की आवाज बनने जा रही थी। इसी काल में जालियाँवाला बाग कांड हुआ, सिविल नाफरमानी आंदोलन चला, चौरा-चौरी हिंसा हुई, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत हुई, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, मोहम्मद अली जिन्ना, मौलाना आजाद जैसे नेता समाज के विभिन्न वर्गों के नायक के रूप में उभरे। इसी दौर में 'प्रगतिशील लेखक संघ', 'इप्टा' जैसे सांस्कृतिक प्रगतिशील आंदोलन अस्तित्व में आए। यहाँ यह भी समझ लेना प्रासंगिक रहेगा कि 1917 में रूस की क्रांति ने भी जहाँ भारतीय राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया वहीं संस्कृतिकर्मी और बौद्धिकों की जमात भी अक्टूबर क्रांति से अछूती नहीं रह सकी। कला, संस्कृति, साहित्यिक, नाटक, सिनेमा जैसे माध्यमों पर इस ऐतिहासिक क्रांति की छाप साफ तौर पर देखी जा सकती है। सवाक भारतीय सिनेमा में नए सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक मुद्दे उठने लगे। इन मुद्दों को आधार बनाकर अनेक गैर-पौराणिक व रोमानी फिल्मों का निर्माण किया गया।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि समाज बदलने लगता है तो संचार माध्यम भी उससे अछूते नहीं रहते हैं। देश में आंदोलन संस्कृति फूटने लगी भारतीयों में स्व-अस्मिता का भाव जाग्रत होने लगा और राष्ट्र राज्य के निर्माण की चेतना अंकुरित होने लगी। सिनेमा कर्मियों ने अपने-अपने ढ़ंग से उभरती हुई प्रवृतियों और विमर्शों को पकड़ने की कोशिश की। यह अकारण नहीं था कि महबूब खाँ ने 'औरत' बाद में 'मदर इंडिया' के नाम से बनी फिल्मों में कृषि समाज की महाजनी अर्थव्यवस्था और तदजनित अंतर्विरोधों को प्रस्तुत किया। इसके साथ ही भारतीय कृषि समाज में औरत की क्या हैसियत है, इसे भी सामने रखा। यह कहना होगा कि जहाँ पौराणिक भारतीय नारियों ('सीता', 'सावित्री', 'तारावती', 'दुर्गा' आदि) की फिल्मों में भरमार थी वहीं महबूब खाँ ने भारतीय स्त्री की यथार्थवादी स्थिति को चित्रित किया। किसान समस्या से संबंधित कई और भी फिल्में बनीं। उदाहरण के लिए उत्तर औपनिवेशिक भारत में बिमल रॉय ने बहुत ही सशक्त फिल्म 'दो बीघा जमीन' का निर्माण कर देश के संक्रमणकालीन द्वंद्वों को उजागर किया। 1953 में बनी ये फिल्म देश के बदलते राजनीतिक-आर्थिक दौर को सामने रखती है और बतलाती है कि औद्योगिकीकरण कृषियुगीन भारत से किस प्रकार की कीमत वसूल करेगा; भूमि का विलगन; सीमांत किसानों का खेतों से बेदखल होना, गाँवों से पलायन; विस्थापन व भूमिहीनता तथा शहरी सर्वहारा में किसान का तब्दील होना; पारंपरिक भू स्वामी या जमींदार और शहरी पूँजीपति का जन्म लेता गठबंधन जैसी प्रवृत्तियाँ नेहरूयुगीन समाजवाद की विसंगतियों को उघाड़ती हैं। यहाँ यह याद दिलाना मौजूं रहेगा कि पाँचवें दशक में ही आदिवासी अंचलों में (बस्तर, भिलाई, दुर्ग, छोटा नागपुर, राँची आदि) औद्योगिक सभ्यता ने अपनी घुसपैठ की लंबी यात्रा की शुरुआत की थी। यह वह दौर भी जब मानव और मशीन के बीच प्रतिस्पर्धा तेज होने लगी थी, मशीन मानव को प्रतिस्थापित करने पर तुली हुई थी। इसका खूबसूरत फिल्मांकन बी.आर.चोपड़ा की फिल्म, 'नया दौर' में देखा जा सकता है। इसी प्रकार राजकपूर द्वारा अभिनीत 'जागते रहो' में भी गाँवों से गमन और शहर में ग्रामीण हिंदुस्तानी का हाशियाकरण व हताशाकरण सामने आता है।

इसी संक्रमणकालीन भारत के अंतर्विरोधों को ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने फिल्म 'शहर और सपना' में भी प्रभावशाली ढ़ंग से सामने रखा है। वामपंथी अब्बास बतलाते हैं कि एक महानगर का निर्माण किस प्रकार मानवीय मूल्यों के दम पर किया जाता है। महानगर की संस्कृति किस तरह से संवेदनाशून्य होती है और किस प्रकार के नारकीय जीवन को जन्म देती है। स्वाधीन भारत के तेजी से होते शहरीकरण और महानगरीकरण की विद्रूपताएँ 'श्री 420', 'बूट पॉलिस', 'जागते रहो', 'फिर सुबह होगी' जैसी फिल्मों में देखने को मिलती है। इन्हीं विद्रूपताओं का मेगा संस्करण बीस पच्चीस साल बाद बनी फिल्मों ('सत्या', 'कंपनी', 'सरकार', 'हथियार', 'त्रिशूल', 'अग्निपथ' आदि) में देखने को मिलता है। भारत नेहरूयुगीन समाजवाद या मिश्रित अर्थव्यवस्था से छलांग लगाकर भूमंडलीकृत राजनीतिक अर्थव्यवस्था में पहुँच जाता है। एक नया विमर्श सिनेमा में जन्मा लेता है जो कि हाइटेक फिल्मों ('कृष', 'रा-वन', 'कोई मिल गया', 'अवतार', '2050', 'माई नेम इज खान', 'न्यूयार्क', 'गजनी' आदि) में प्रतिबिंबित होता है। इन फिल्मों से इस बात की संकेत मिलते हैं कि भारत तेजी से बदल रहा है और उपभोक्तावाद के युग में प्रवेश कर चुका है। भारत के भूमंडलीकृत दौर में बनी फिल्मों में उपभोक्तावाद का चरम विस्फोट, मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का कमोडिटीकरण, गुरु मूल्यों और संस्थाओं का विखंडन, नायक का प्रतिनायक, प्रतिनायक का नायक में रूपांतरण, लंपटी शक्तियों का ग्लैमरीकरण, हिंसा व सेक्स की वर्चस्वता जैसी घटनाएँ आक्रमकता के साथ स्थापित हुई हैं। अब यदि भारतीय राजनीतिक व आर्थिक परिदृश्य की फिल्म बनाई जाए तो वह इससे भिन्न नहीं होगी। उदाहरण के लिए विगत दो दशकों में सबसे अधिक महाघोटालों ने इस राष्ट्र-राज्य को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया है। इसी दौर में अपराध पृष्ठभूमि के निर्वाचित प्रतिनिधि विधायिका में पहुँचे, इनका प्रतिशत 30 तक हुआ। इतना ही नहीं, 'आया राम गया राम' के नवीनतम संस्करण सामने आए। करोड़पतियों की ताद्दाद संसद और विधानसभा में कई गुणा बढ़ी। इस कुरूप यथार्थ का चित्रण 'राजनीति', 'सरकार', 'गंगाजल', 'अपहरण', 'सत्याग्रह', 'नायक' जैसी फिल्मों में शिद्धत के साथ दिखाई देता है।

गौरतलब यह भी है कि भारतीय सिनेमा समाज के परिवर्तनशील यथार्थ के साथ कदमताल मिलाकर चलता रहा है। पाँचवें दशक तक जहाँ भारतीय स्त्री को निरीह, अबला, पतिता, कुलटा, डायन, छिनाल जैसे अपमानजनक संबोधनों से जड़ा जाता था, वहीं कालांतर में स्त्री के अस्तित्व, और अस्मिता को भी पुरजोर तरीके से स्थापित किया गया। याद कीजिए स्वाधीनता के आरंभिक वर्षों में बनी 'पतिता', 'धूल का फूल', 'साधना', 'एक ही रास्ता', 'धर्मपुत्र' जैसी फिल्मों को जिसमें अर्द्धसामंती व अर्द्ध औपनिवेशिक भारत की स्त्री की कशमकश, शुचिता, पुरुष प्रधान समाज की वर्चस्ववादी व्यवस्था जैसे पहलुओं का चित्रांकन किया गया था लेकिन बाद के दशकों में बनी फिल्मों में भारतीय स्त्री का नया रूप सामने आता है। इस दृष्टि से 'अर्थ', 'अस्तित्व', 'क्या कहना', 'मातृभूमि', 'बैडिंट क्वीन', 'मंडी', 'दामिनी', 'पिंजर', 'चक्र', 'मम्मो', 'जुबैदा', 'चाँदनी बार', 'गॉड मदर', 'गजगामिनी', 'भूमिका', 'लज्जा' जैसी फिल्में उल्लेखनीय हैं। इन फिल्मों में उत्तर नेहरूकालीन तथा इंदिरा-राजीवकालीन भारत की स्त्री का एक नया रूप उभरता हुआ मिलता है जो कि अस्तित्व व अस्मिता बोध, प्रतिरोध और विद्रोह से रूपायित हुआ है। 21वीं सदी की भारतीय स्त्री सामंती संस्कारों, सोच और पुरुष की वर्चस्व सत्ता को सीधे ललकारती है। वह एक नए विमर्श को जन्म देती है जिसमें स्त्री पुरुष की समानता व स्वतंत्रता की उत्कंठा छितराई हुई है।

प्रश्न यहाँ स्त्री-पुरुष की समानता का नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि सिनेमा बदलते भारत के द्वंद्वों और प्रवृत्तियों को किस प्रकार अपनी भाषा के माध्यम से अभिव्यिक्ति देता है क्योंकि एक नया सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ भारतीय फलक पर उभर रहा था। एक तरफ गांधीवाद और समाजवाद की विचारधाराएँ अपनी जौहर दिखा रही थी तो दूसरी ओर हिंदू-मुस्लिम संबंध नई करवटें ले रहे थे; जहाँ भारत को दो सौ वर्ष की पराधीनता से आजादी दिलाने का आंदोलन जारी था वहीं इस विभाजन की भी तैयारियाँ चल रही थी; भारतीय समाज के आंतरिक उपनिवेश (दलित व आदिवासी) के सुप्त अंतर्विरोध धीरे-धीरे चमकने लगे थे; स्वदेशी और पश्चिमी जीवन दृष्टियों के बीच टकराहटें उभरती जा रही थीं इन तमाम प्रकार के अंतर्विरोधों को सैलूलाइड पर उतारना भारतीय सिनेकर्मियों के लिए एक बड़ी चुनौती थी; लेकिन इससे भारतीय सिनेमा ने पलायन नहीं किया बल्कि अपनी तत्कालीन प्रतिभा और सिनेमा तकनीकी क्षमता के साथ इसका सामना किया।

जैसे-जैसे आंदोलन तेज होता गया वैसे-वैसे विभिन्न राष्ट्रीय धाराओं को लेकर फिल्में बनती गईं। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर 'शहीद' जैसी फिल्म बनी। इसी प्रकार अस्पृश्यता की समस्या को लेकर 'अछूत कन्या', 'सुजाता', 'नीचा नगर' जैसी फिल्में भी बनती हैं। इसके साथ ही संस्था के रूप में पतनशील सामंतवाद को लेकर भी कई फिल्में बनी जिनमें प्रमुख थी गुरूदत्त की 'साहब, बीबी और गुलाम'। श्रमिक वर्ग की समस्याओं को लेकर भी फिल्में बनाई गईं। श्रमिक वर्ग के संघर्ष को 'समाज को बदल डालो', 'नया जमाना', 'पैगाम', 'सत्यकाम', 'नमक हराम', 'काला सोना' जैसी फिल्मों में देखा जा सकता है। श्रमिक आंदोलन से संबंधित फिल्मों में गांधीवादी विचारधारा और मार्क्सवादी विचारधारा की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। आगे चलकर भी स्वातंत्र्योत्तर भारत में इसी प्रकार की कई फिल्में बनी जो कि किसी न किसी रूप में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को दर्शाती हैं। इन फिल्मों में 'दो आँखें बारह हाथ', 'सत्यकाम', 'जागृति', 'अंकुर', 'निशांत', 'आक्रोश', 'मृगया', 'दामुल', 'अल्बर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है', 'मोहन जोशी हाजिर हो', 'द्रोहकाल' जैसी सैलूलाइड कृतियों को शामिल किया जा सकता है।

भारत महाविभाजन की त्रासदी से गुजरा। अथाह कोशिशों के बावजूद स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व हिंदू-मुस्लिम संबंधों को एक समान कौम की शक्ल देने में ऐतिहासिक रूप से नाकाम रहा है। हिंदी सिनेमा ने इस त्रासदी को भी समझने की कोशिश की, कुछ गंभीर फिल्में बनीं जिनमें 'गरम हवा', 'तमस', 'ट्रेन टू लाहौर', 'धर्म पुत्र', 'पिंजर' आदि फिल्मों को याद किया जा सकता है। हालाँकि आजाद भारत में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के अलावा विभाजन से उत्पन्न दक्षिण एशिया के महास्थापन पर भी दर्जनों बॉलीवुड फिल्में बन चुकी हैं। इन फिल्मों में विभाजन का सतही ट्रीटमेंट है फिर भी बॉक्स ऑफिस पर हिट फिल्मों में 'वक्त', 'छलिया' जैसी फिल्मों को याद किया जा सकता है। हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं जिनमें मुगलकालीन पृष्ठभूमि पर बनी ऐतिहासिक फिल्में भी शामिल हैं। इन फिल्मों में जहाँ सिनेमाई ऐतिहासिकता दिखाई देती है वहीं सतही स्तर पर या रोमांटिक तर्ज में हिंदू-मुस्लिम संबंधों को भी परोसा गया है। इस तरह की फिल्में हैं- 'तानसेन', 'मुगले आजम', 'शाहजहां', 'हुमायूँ', 'जोधा अकबर', 'गोलकुंडा, का कैदी', 'लालकिला', 'उमरावजान', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'मेरे महबूब', 'चौदहवीं का चाँद', 'बाजार', 'बरसात की एक रात', 'धर्मपुत्र', 'आसमान महल', 'दस्तक', 'नसीम', 'बहू बेगम', 'अमर अकबर एंथोनी', 'सरफरोश', 'फिजा', 'पाकीजा', 'वीरजारा' आदि। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्वाधीन भारत में उस मुस्लिम वर्ग का फिल्मांकन किया गया जो कि सामंती पृष्ठभूमि से था, अल्पसंख्यक वर्ग के निचले तबकों की उपस्थिति बहुत कम दिखाई गई। वैसे पिछले कुछ वर्षों से बंबईया फिल्मों में विभिन्न प्रकार के अपराधों में संलिप्त निम्न मुस्लिम वर्ग को जरूर चित्रित किया जा रहा है जो कि गैर नवाबी मुस्लिम समाज की आधी-अधूरी या विकृत तस्वीर पेश करता है। अधिसंख्य मुस्लिम समाज तेजी से बदल रहा है। मुस्लिम समाज का नवउदित मध्य वर्ग व निम्न मध्य वर्ग भी भारतीय राष्ट्र राज्य में अपना गरिमापूर्ण स्थान पाने और राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान देने की दृष्टि से वैसी ही भूमिका निभा रहे हैं जिस प्रकार बहुसंख्यक समाज के वर्ग निभाते हैं। हिंदी सिनेमा को अल्पसंख्यक वर्गों के प्रति नई दृष्टि और संवेदनशीलता से काम लेने की जरूरत है।

विगत ढ़ाई-तीन दशकों में नए विमर्श सामने आए हैं। सिनेमा ने इनकी अनदेखी नहीं की है, यह सच है। उदाहरण के लिए 'मुन्ना भाई एमबीबीएस', 'लगे रहो मुन्ना भाई', 'हे राम', 'थ्री इडियट', 'तारे जमीं पर', 'पा', 'खामोशी', 'ब्लैक', 'माचिस', 'स्वदेश' 'आ अब लौट चलें', 'रांझणा', 'मद्रास कैफे', 'पीपली लाइव', 'ट्रेफिक सिग्नल', 'रंग दे बसंती', 'वेडनसडे', 'पान सिंह तोमर', 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी', 'गैंग ऑफ वासेपुर' जैसी फिल्मों में हिंदी सिनेकर्मियों ने 21वीं सदी के परिप्रेक्ष्य में गतिशील भारत की अधुनातन प्रवृत्तियों का फिल्मांकन किया है।

आज भारत भूमंडलीकरण के तीसरे चरण की दहलीज पर खड़ा हुआ है। एक प्रकार का अदृश्य साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद दक्षिण एशिया को घेरे हुए है। विश्व में एकल ध्रुवीय शक्ति तंत्र की सत्ता फैली हुई है। सभ्यताओं के टकराव और संघर्ष के नए क्षेत्र निर्मित होते जा रहे हैं। सुदूर संचालित साम्राज्यवादी शक्तियाँ नए मानव संबंधों को जन्म दे रही हैं जो कि पूरी तौर पर अनुकूलित और एकरूपी बनने के संकटों के साये में पल रहे हैं। राष्ट्रों की संप्रभुता विखंडित हो चुकी है और कारपोरेट राज्यी परंपरागत राज्य को प्रतिस्थापित करने पर कटिबद्ध है। जाहिर है कि इस तरह की स्थितियाँ समाज में कल्पनातीत परिस्थितियों को जन्मा देगी। एक नया राजनीतिक-आर्थिक विमर्श मानव सभ्य ता को ललकारने के लिए तैयार खड़ा है। जब आज भारतीय सिनेमा की एक सदी मनाई जा रही है तब सिनेकर्मियों और चिंतकों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे हाइटेक सिनेमा के माध्यम से भविष्य के मानव का संत्रास किस प्रकार पढ़ते हैं

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समाजशास्त्री हैं)


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